नूरीन
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 1
नुरीन होश संभालने के साथ ही अपनी अम्मी की आदतों, कामों से असहमत होने लगी थी। जब कुछ बड़ी हुई तो आहत होने पर विरोध भी करने लगी। ऐसे में वह अम्मी से मार खाती और फिर किसी कमरे के किसी कोने में दुबक कर घंटों सुबुकती रहती। दो-तीन टाइम खाना भी न खाती। लेकिन अम्मी उससे एक बार भी खाने को न कहती। बाकी चारो बहनें उससे छोटी थीं। जब अम्मी उसे मारती थी तो वह बहनें इतनी दहशत में आ जातीं कि उसके पास फटकती भी न थीं। सब अम्मी के जोरदार चाटों, डंडों, चिमटों की मार से थर-थर कांपती थीं। वह चाहे स्याह करे या सफेद, उसके अब्बू शांत ही रहते। अम्मी जब आपा खो बैठतीं, डंडों, चिमटों से लड़कियों को पीटतीं तो बेबस अब्बू अपनी एल्यूमिनियम की बैशाखी लिए खट्खट् करते दूसरी जगह चले जाते।
उनकी आंखें तब भरी हुई होती थीं। जिन्हें वह कहीं दूसरी जगह बैठ कर अपने कुर्ते के कोने से आहिस्ता से पोंछ लेते। वह पूरी कोशिश करते थे कि कोई उन्हें ऐसे में देख न ले। लेकिन अन्य बच्चों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील नुरीन से अक्सर वह बच नहीं पाते थे। तब नुरीन चुपचाप उन्हें एक गिलास पानी थमा आती थी। खुद पिटने पर वह ऐसा नहीं कर पाती थी। उसे अब्बू की हालत पर बड़ा तरस आता था।
छः साल पहले एक दुर्घटना में उनका एक पैर बेकार हो गया था। कई और चोटों के कारण वह ज़्यादा देर बैठ भी नहीं सकते थे। रही-सही कसर मुंह के कैंसर ने पूरी कर दी थी। तंबाकू-शराब के चलते कैंसर ने मुंह को ऐसा जकड़ा था कि जबड़े के कुछ हिस्से से लेकर जुबान का भी अधिकांश हिस्सा काट दिया गया था। जिससे वह बोल भी नहीं सकते थे। उनकी इस दयनीय स्थिति पर भी अम्मी उन्हें लताड़ने-धिक्कारने, अपमानित करने से बाज नहीं आती थी। शायद ही कोई ऐसा सप्ताह बीतता जब वह अब्बू को यह कह कर ना धिक्कारती हों कि ‘ये पांच-पांच लड़कियां पैदा कर के किसके भरोसे छोड़ दी, कौन पालेगा इनको, तुम्हारा बोझ ढोऊं कि इन करमजलियों का, अंय बताओ किस-किस को ढोऊं।’ जब अब्बू उनकी इन जली-कटी बातों पर प्रश्नों और लाचारी से भरी आंखों से देखते तो अम्मी किचकिचाती हुई यह भी जोड़ देती ‘अब हमें क्या देख रहे हो जब कहती थी तब समझ में नहीं आया था, तब तो दारू भी चाहिए, मसाला भी चाहिए, खाओ, अब हमीं को चबा लो।’ यह कहते हुए अम्मी पैर पटकती, धरती हिलाती चल देती थी। और अब्बू बुत बने बैठे रहते।
नुरीन को अम्मी की बातें, गुस्सा कभी-कभी कुछ ही क्षण को ठीक लगता था कि अब्बू के बेकार होने के बाद घर-बाहर का सारा काम उन्हीं के कंधों पर आ गया। घर के उनके कामों में जहां अब्बू को कपड़े पहनने में मदद करना तक शामिल है वहीं बाहर का सारा काम, सारे बच्चों के स्कूल के झमेले और फिर दिन में तीन बार आरा मशीन पर जाना। पहले दादा को आरा मशीन पर पहुंचाना, फिर दोपहर का खाना देने जाना, शाम को उनको घर ले आना। अब्बू के बेकार होने के बाद दादा एक बार फिर से आरा मशीन का अपना पुश्तैनी धंधा देखने लगे थे। नौकरों के सहारे बड़ा नुकसान होने के कारण उन्होंने मजबूरी में यह कदम उठाया था कि चलो बैठे रहेंगे तो कुछ तो फर्क पडे़गा।
नुरीन हालांकि घर के कामों में अम्मी की बहुत मदद करती थी। उम्र से कहीं ज़्यादा करती थी। इसके चलते उसकी पढ़ाई भी डिस्टर्ब होती थी। ऐसे माहौल में नुरीन को कभी अच्छा नहीं लगता था कि कोई मेहमान उसके घर पर आए। लेकिन मेहमान थे कि आए दिन टपके ही रहते थे। शहर के अलग-अलग हिस्सों में सभी रिश्तों की मिला कर उसकी छः से ज़्यादा फुफ्फु और इनके अलावा चाचा और ख़ालु थे। इन सबमें उसे सबसे ज़्यादा अपने छोटे ख़ालु का आना खलता था। वह न दिन देखें ना रात जब देखो टपक पड़ते थे। बाकी और जहां परिवार के सदस्यों को लेकर आते थे। वहीं वह अकेले ही आते थे।
अब्बू के एक्सीडेंट के समय जहां कई रिश्तेदारों ने बड़ी मदद की थी वहीं इस ख़ालु ने खाना-पूर्ती करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अब्बू के कैंसर के इलाज के वक़्त भी यही हाल था। नुरीन को अपने इस ख़ालु के चेहरे पर मक्कारी-धूर्तता का ही साया दिखता था। वह चाहती थी कि अम्मी भी ख़ालु की इस धूर्तता को पहचानें। उसे बड़ा गुस्सा आता जब वह अम्मी के साथ अकेले किसी कमरे में बैठकर हंसी-मजाक करता, बतियाता, चाय-नाश्ता करता। और अब्बू अलग-थलग किसी कमरे में अकेले बैठे सूनी-सूनी आंखें लिए दीवार या किसी चीज को एक टक निहारा करते। उस वक़्त उसका मन ख़ालु का मुंह नोच लेने का करता जब वह अम्मी के कंधों पर हाथ रखे बगल में चलता हुआ रसोई तक चला जाता। या फिर जब वह दोनों कमरे में बातें कर रहे होते तो उसके या किसी बहन के वहां पहुंचने पर अम्मी गुस्से से चीख पड़तीं।
उसे यह भी समझने में देर नहीं लगी थी कि उसकी ही तरह अब्बू भी अंदर-अंदर यह सब देख कर बहुत चिढ़ते हैं। मगर उनकी मज़बूरी यह थी कि वह चाह कर भी कुछ बोल नहीं सकते थे। दादा की कुछ चलती नहीं थी। घर चलता रहे इस गरज से वह बेड पर आराम करने की हालत में हिलते-कांपते आरा-मशीन का धंधा संभालते थे। उन्हें मौत के करीब पहुंच चुके अपने बेटे के इलाज की चिंता सताए रहती थी। वैसे भी अब्बू के इलाज के चलते घर अब तक आर्थिक रूप से बिल्कुल टूट चुका था। बाकी दोनों बेटे मुंबई में धंधा जमा लेने के बाद से घर से कोई खास रिश्ता नहीं रख रहे थे। इन सबके बावजूद उनकी हिम्मत पस्त नहीं हुयी थी। तमाम लोगों का बड़ा भारी परिवार होने के बावजूद वह खुद को एकदम तन्हा ही पाते थे। मगर फिर भी उनकी हिम्मत में कमी नहीं थी।
नुरीन उनके इस जज्बे को सलाम करती थी। और अब्बू के साथ-साथ दादा की सेवा में भी कोई कसर नहीं छोड़ती थी। वह दादा से कई बार बोल चुकी थी कि दादा उसे काम-धंधे में हाथ बंटाने दें। लेकिन दादा बस यह कह कर मना कर देते कि ‘बेटा मैं अपने जीते जी तुम्हें लकड़ी के इस धंधे में हरगिज नहीं आने दूंगा। दुकान पर मर्दों की जमात रहती है। वहां तुम्हारा जाना उचित नहीं है।’ दादा की इस बात पर वह चुप रह जाती और मन ही मन कहती दादा वहां तो बाहरी मर्दों की जमात से आप मेरे लिए खतरा देख रहे हैं। लेकिन घर में धूर्तों की जो जमात आती रहती है उसमें मैं कितनी सुरक्षित हूं इस पर भी तो कभी गौर फरमाइए।
यह सोचते-सोचते उसकी आंखें भर आतीं कि अब्बू देख कर भी कुछ करने लायक नहीं हैं और दादा घर में धूर्तों की जमात पहचानने लायक नहीं रहे। वह हर ओर अंधेरा ही अंधेरा देख रही थी। इस अंधेरे को दूर करने की वह सोचती और इस कोशिश में घर के ज़्यादा से ज़्यादा काम करने के बावजूद जी जान से पढ़ाई करती। अपनी बहनों को भी पढ़ने के लिए बराबर कहती और बहनों को अपने साथ एक जगह रखती। रिश्तेदारों से दूर रहने की कोशिश करती। घर के इस अंधेरे में दरवाजों, कोनों, दीवारों से टकराते, गिरते-पड़ते उसने ग्रेजुएशन कर लिया। इस पर उसने राहत महसूस की और सोचा कि आगे की पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी तलाशेगी।
ग्रेजुएशन किए अभी दो-तीन महिना भी ना बीता था कि पूरे घर पर कहर टूट पड़ा। एक दिन अब्बू के मुंह से खून आने पर जांच कराई गई तो पता चला कि कैंसर तो गले में भी फैला हुआ है और लास्ट स्टेज में है। और अब्बू का जीवन चंद दिनों का ही रह गया है। यह सुनते ही दादा को तो जैसे काठ मार गया। नुरीन को लगा कि जैसे दुनिया ही खत्म हो गई। अब्बू भले ही अपाहिज हो गए थे। गूंगे हो गए थे। लेकिन एक साया तो था। अब्बू का साया। अम्मी और वह दोनों अब्बू को लेकर फिर पी.जी.आई., लखनऊ के चक्कर लगाने लगी थीं। अब अम्मी को देख कर नुरीन को ऐसा लगा कि मानो अम्मी के लिए यह एक रूटीन वर्क है। अब्बू की सामने खड़ी मौत से जैसे उन पर कोई खास फ़र्क नहीं था। मानो वह पहले ही से यह सब जाने और समझे हुए थीं कि यह सब तो एक दिन होना ही था। जल्दी ही पी.जी.आई. के डॉक्टरों ने निराश हो कर अब्बू को घर भेज दिया। कहा कि ‘ऊपर वाले पर भरोसा रखें। अब हमारे हाथ में कुछ नहीं बचा। आप चाहें तो टाटा इंस्टीट्यूट, मुंबई ले जा सकती हैं।’ यह सुन कर अम्मी एकदम शांत हो गईं। भावशून्य हो गया उनका चेहरा। वह खुद रो पड़ी थी। पिछली बार जिन रिश्तेदारों ने पैसे आदि हर तरह से सहयोग किया था। वही सब इस बार खानापूर्ति कर चलते बने।
पैसे की तंगी पहले से ही थी। ऐसे में लाखों रुपए अब और कहां से आते कि अब्बू को इलाज के लिए मुंबई ले जाते। सबने एक तरह से हार मान ली। अब पल-पल इस दहशत में बीतने लगा कि वह मनहूस पल कौन सा होगा जिसमें मौत अब्बू को छीन ले जाएगी। इधर कहने को दी गईं दवाओं का कुछ भी असर नहीं था। अब मुंह में खून, भयानक पीड़ा से अब्बू ऐसा कराहते कि सुनने वालों के भी आंसू आ जाएं। इस बीच नुरीन ने देखा कि वह मनहूस ख़ालु अब आ तो नहीं रहा लेकिन फ़ोन पर अम्मी से पहले से ज़्यादा बातें करता रहता है। अब्बू की इस हालत और ख़ालु की कमीनगी से नुरीन का खून खौल उठता था।
वह अब दादा की आंखों में भी गहरा सूनापन देख रही थी। उन्होंने मुंबई में अपने बाकी बेटों को फ़ोन किया कि ‘तुम्हारा एक भाई मौत के दरवाजे पर खड़ा है। तुम लोग मदद कर दो तो किसी तरह मुंबई भेज दूँ , वहां उसका इलाज करा दो।’ मगर उन बेटों ने मुख्तसर सा जवाब दिया कि ‘अब्बू यहां इतनी मुश्किलात हैं कि हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे। डॉक्टर, हॉस्पिटल तो वहां भी बहुत अच्छे से हैं। वहीं कोशिश करिए।’ दादा को इन बेटों से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं थी। मगर उम्मीद की हर किरण की तरफ वह आस लिए बेतहाशा दौड़ पड़ते थे। नुरीन भी दादा के साथ ही दौड़ रही थी। बल्कि वह उनसे भी आगे निकल जाने को छटपटाती थी। तो इसी छटपटाहट में उसने मुंबई में चाचाओं को खुद भी फ़ोन लगाया कि ‘आप लोग अब्बू को बचा लें। वह ठीक हो जाएंगे तो आप सबके पैसे हर हाल में दे देंगे।’ नुरीन जानती थी कि उसके चाचा इतने सक्षम हैं कि अब्बू का मुंबई में आसानी से इलाज करा सकते हैं। मगर उन चाचाओं ने नुरीन की आखिरी उम्मीद का सारा नूर खत्म कर दिया।
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